
जहां कण-कण में पारस है वह शहर बनारस है…पार्ट-2
शुभम सोनकर, लेखक, दिल्ली।
सभी धर्मों की प्रिय कबीर और तुलसी की इस कर्मभूमि के सही कहा गया है कि-
“बनारस में बनारसी बाघ है
बनारसी माघ है, बनारसी घाघ है
बनारसी जगन्नाथ है. शैव हैं, वैष्णव हैं, सिद्ध हैं,
बौद्ध हैं, कबीरपन्थी नाथ हैं.
लेकिन यहां सबकी प्रवाह गंगा और न्यायाधीश विश्वनाथ हैं”
जहां हर शाम दिवाली है और सुबह होली, वहां की हर एक बात भी मस्ती में रहती है. ‘गंगा-जमनी’ तहज़ीब को संजोए हुए बनारस में प्रकाण्ड विद्वान और राजनैतिक जानकार हर गली-मुहल्ले में किसी चाय या पान की दुकान पर मीटिंग करते हुए आसानी से मिल जाते हैं. जब मुंह में पान घोले कोई बनारसी ज्ञान देता है तो लगता है कि साहित्य के नौ रस टपक रहे हों. फिर चाहे कुछ समझ आए या न आए.
एक सज्जन बनारस पर लिखी अपनी किताब में कुछ इस तरह लिखते हैं-
एक बार खड़ाऊं पहनकर पांव लटकाए पान की दुकान पर तन्नी गुरु से एक आदमी बोला-
‘कौन दुनिया में हो गुरु! अमरीका रोज-रोज आदमी को चांद पर भेज रहा है और तुम घण्टा भर से पान घुला रहे हो.’
इतने में पच्च से पान थूके तन्नी गुरु, और ताव में आकर बोले-
‘देखौ! एक बात नोट कर लो. चंदा हो या सूरज! जिस साले की गरज होगी, खुदै यहां आयेगा. तन्नी गुरु टस-से-मस नहीं होंगे हियां से. समझे कुछ?’
‘गुरु’ यहां की नागरिकता का सरनेम है. न कोई सिंह, न पांडे, न जादो, न राम ! सब गुरु ! जो पैदा भया, वह भी गुरु ! जो मरा, वह भी गुरु ! वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतन्त्र है ‘बनारस’.
एक बनारस जो घाटों के किनारे बसा है. एक छोटा कानपुर जो बनारस के चांदपुर में रहता है. एक दिल्ली का कनॉट प्लेस जो बनारस के लंका में खरीदारी करता है. एक वो बनारस जो रामनगर की रामलीला में खेलता है. वो रामनगर, जहां की लस्सी पूरे बनारस को मीठा करती है. और एक वो बनारस जो केवल ‘बनारस’ में बसता है.
यह वो बनारस है जो भारतीय परम्परा का प्रमाण है. और इस बनारस के विश्वप्रसिद्ध होने का प्रमाण देने की कभी जरुरत महसूस नहीं हुई. यह प्राचीन वेदों में भी है और सबके दिलों में भी. एक छोटा-सा किस्सा काशी की प्रसिद्धि की-
“जब शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन हो रहा था तब काशी के एक धर्म गुरु ने अपने विचार एक पत्र के माध्यम से धर्म सम्मेलन में भेजा. लेकिन पत्र पर वो अपना पूरा पता लिखना भूल गए और उन्होनें पते में सिर्फ ‘काशी’ ही लिखा. लेकिन काशी की प्रसिद्धि इतनी थी कि पत्र का जवाब सही पते पर आ गया.”
कहते हैं, भारत विविधताओं का देश है. और भारत की यही विविधता बनारस की ‘गलियों’ में दिखती है. बनारसी गलियों की खिड़की से देखने पर भारत दर्शन हो जाता है. सभी दिशाओं की खुशबू बनारस की गलियों से आती है. बनारस जितना मंदिरों और घाटों में रहता है, उतना ही यहां की गलियों में भी बसता है.
कभी बनारस की तंग गलियों में घूमते वक्त किसी खिड़की से उड़ती हुई पान की फूहार सिर पर पड़ जाए तो इससे किसी के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचता. क्योंकि इसके बाद जिस बनारसी सम्मान के साथ बनारस की दिव्य और कलात्मक गालियों में वार्तालाप होता है, वो वहां मौजूद लोगों के मनोरंजन का ऑल इण्डिया रेडियो बन जाता है.
और कभी भटकते हुए किसी बंद गली में भोलेनाथ के मस्ताने वाहन से भेंट हो जाए तो समझिए की बनारस दर्शन हो गया. क्योंकि इसके बाद जो होता है उसका पूरा दारोमदार भोलेनाथ के वाहन का होता है. विश्वनाथ गली, कचौड़ी गली, खोया गली इसी तरह के नामों की खूबियों वाली बनारसी गलियों के बारे में किसी ने कहा है-
“गलियों बीच काशी है, कि काशी बीच गलियां।
कि काशी ही गली है, कि गलियों की ही काशी है।।”
ये वो शहर है, जहां ‘राम’ नाम सत्य है लेकिन मुर्दा भी मस्त है. सात वार, नौ त्यौहार की बनारसी परम्परा में अहंकार रहित होना ही बनारस है. लोगों का दृढ़ विश्वास है कि बनारस में मरने से मोक्ष मिलता है. लेकिन गुरु ! हकीकत त ई बा कि बनारस जीए सीखावला ! इसीलिए कहा गया है-
बनारस में फूल बिकते हैं,
मालाएं बिकती हैं, चन्दन बिकता है,
देह बिकती है, प्रसाद बिकता है,
साहित्य बिकता है. लेकिन
सुख नहीं बिकता बनारस में,
फिर भी यहां सुख मिलता है
इतिहास की साक्ष्य इस नगरी में कई संस्कृतियां आईं और इस अडिग संस्कृति ने सबका स्वागत किया. पर बनारस पर कोई अपनी छाप कोई न छोड़ सका. कोशिशें तो बहुत की गईं लेकिन जीत कोई न पाया. बनारस के काशीनाथ सिंह अपनी किताब में लिखते हैं-
“पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहां आते हैं और सोचते हैं कि दुनिया इसका टीका हो जाए… मगर चाहने से क्या होता है!
अगर चाहने से कुछ होता तो पिछली खाड़ी युद्ध के दिनों में अस्सी चाहता था कि अमरीका का ‘व्हाइट हाउस’ इस मुहल्ले का ‘सुलभ शौचालय’ हो जाय ताकि उसे ‘दिव्य निपटान’ के लिए ‘बहरी अलंग’ अर्थात गंगा पार न जाना पड़े… मगर चाहने से क्या होता है!”
जहां कण-कण में पारस है वह शहर बनारस है. और बनारस के बारे में कभी कुछ पूरा बताया नहीं जा सकता. इसीलिए आखिर में-
“सभ्यता का जल यहीं से जाता है
सभ्यता की राख यहीं आती है
लेकिन यहां से कोई हवा नहीं बहती
न ही सभ्यता की कोई हवा आती है
यह बनारस है”